मेरी जुबान चुनाव डेस्क
आजादी के बाद देश में हुए आम चुनाव में कई सीटें ऐसी थी, जिन पर नेता तीन सीटों से चुनाव लड़ते थे। दरअसल, इन दोनों सीटों में से एक सीट सामान्य और दूसरी आरक्षित यानी एससी-एसटी वर्ग के लिए हुआ करती थी। उल्लेखनीय है, ऐसी व्यवस्था इसलिए लागू की गई थी, ताकि आरक्षित वर्ग को भी प्रतिनिधित्व मिल सके। हालांकि विरोध के बाद साल 1962 में इस व्यवस्था को खत्म कर दिया गया।
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डबल सीट से चुनाव लड़ने का इतिहास
देश में पहले आम चुनाव 1952 में कराए गए। चुनाव के बाद 17 अप्रैल 1952 को पहली लोकसभा का गठन किया गया और जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बने। इस चुनाव में कुल लोकसभा सीटों की संख्या 489 थी, जिसमें कांग्रेस ने 364 सीटें जीती थीं। इस चुनाव में 89 लोकसभा सीट ऐसी थीं, जिन पर दो-दो सांसद जीते थे। यानी एक संसदीय सीट पर दो सांसद। वर्ष 1957 के आम चुनाव में 90 सीटों पर दो-दो उम्मीदवार देशभर से चुनाव जीते थे।
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जब तीसरे नंबर पर रहने वाला प्रत्याशी बना सांसद
डबल सीट की व्यवस्था के दौरान ऐसा भी हुआ जब जब तीसरे नंबर पर रहने वाले उम्मीदवार को विधायक चुना गया। दरअसल जब उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ सीट दूसरे आम चुनाव में चुनाव हुआ तो तीसरे नबंर पर रहने वाले कांग्रेस प्रत्याशी विश्वनाथ प्रसाद को सांसद चुना गया। पहले नंबर पर कालिका सिंह को 138247 और दूसरे नंबर पर रहने वाले प्रोफेसर मुकुट बिहारी लाल को 119478 वोट मिले। जबकि तीसरे नंबर पर रहने वाले विश्वनाथ प्रसाद को 103239 वोट मिले। पहले नंबर पर रहे कांग्रेस प्रत्याशी कालिका सिंह सामान्य वर्ग से आते थे, इसलिए उनको सांसद चुना गया। दूसरे नंबर पर रहने वाले प्रोफेसर मुकुट बिहारी लाल भी सामान्य वर्ग से थे। चूंकि एससी-एसटी वर्ग का भी सांसद चुनना था तो विश्वनाथ प्रसाद को सांसद चुना गया। आजमगढ़ की तरह रायबरेली, हरदोई और हमीरपुर की डबल सीट पर भी तीसरे नंबर पर रहे प्रत्याशी सांसद चुने गए। देशभर में इस व्यवस्था का खूब विरोध हुआ। यह व्यवस्था साल 1962 के चुनाव में खत्म कर दी गई।
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क्यों होते थे ऐसे चुनाव?
दरअसल, 1952 में आरक्षित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिए एक सीट पर दो-दो सांसदों का फॉर्मूला अपनाया गया। दिलचस्प बात यह है कि इन सीटों पर जनता को भी दो-दो वोट डालने का अधिकार दिया जाता था। हालांकि कोई भी मतदाता अपनी दोनों वोट एक ही उम्मीदवार को नहीं दे सकता था। इसके बाद वोटों गिनती के दौरान सामान्य वर्ग के जिस उम्मीदवार को सबसे ज्यादा वोट मिलते थे,उसे विजयी घोषित कर दिया जाता था। इसी तरह आरक्षित वर्ग के किस उम्मीदवार को सबसे ज्यादा वोट मिलते थे, उसे सांसद चुन लिया जाता था।
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डबल सीट जीतने पर एक पर से छोड़नी होगी दावेदारी
वहीं 1996 तक दो से ज्यादा लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ने की छूट थी, लेकिन रेप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपुल ऐक्ट 1951 में संशोधन कर तीन की बजाय दो सीटों से चुनाव लड़ने तक सीमित कर दिया गया। साथ ही यह भी लिखा गया कि अगर कोई नेता दो सीटों से चुनाव जीतता है तो उसे 10 दिनों के भीतर एक सीट खाली करनी होती है।
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इन दिग्गजों ने डबल सीट से लड़ा चुनाव
-पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 1991 में दो सीटों विदिशा और लखनऊ से लोकसभा चुनाव लड़े थे, दोनों सीटों से वाजपेयी जीत गए और वाजपेयी ने विदिशा सीट छोड़ दी। इससे पहले 1957 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ की तरफ से अटल बिहारी वाजपेयी ने यूपी की 3 लोकसभा सीटों ,बलरामपुर, मथुरा और लखनऊ से चुनाव लड़े थे।
-रायबरेली से 1977 का चुनाव हार चुकी इंदिरा ने 1980 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली और मेडक दो लोकसभा सीटों से लड़ी, इंदिरा दोनों जगहों से चुनाव जीती, लेकिन चुनाव जीतने के बाद रायबरेली लोकसभा सीट अपने पास रखा।
-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के आम चुनाव में वाराणसी और वडोदरा से चुनाव लड़ा था। उन्होंने दोनों जगहों से जीत दर्ज की थी, लेकिन वाराणसी सीट को अपने पास रखा था।
– समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव ने भी 2014 में आजमगढ़ और मैनपुरी से चुनाव लड़ा था, और दोनों ही जगह जीता भी था। लेकिन उन्होंने आजमगढ़ सीट को अपने पास रखा था।
– 2019 में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अमेठी और केरल के वायनाड से चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें अमेठी से हार मिली और वायनाड पर उन्होंने जीत हासिल की।